विलेम फ्लुसर द्वारा 1983 में लिखित पुस्तक "टुवर्ड्स ए फिलॉसफी ऑफ फोटोग्राफी" में फ्लुसर ने फोटोग्राफी की सिद्धांतिकता का विवरण किया है। वे लिखते हैं, तस्वीरें जादुई होती हैं, वे हमारा ध्यान खींचती हैं और उसे बाधित रखती हैं। फ्लुसर टेक्स्ट और तस्वीरों की तुलना करते हुए लिखते हैं कि टेक्स्ट में एक शुरुआत और एक समाप्ति होती है, आप शुरुआत से शुरू करते हैं और समाप्ति पर अंत करते हैं। वहीं तस्वीर एक ऐसी चीज है जिसमें इस प्रकार की कोई निशानी नहीं होती। तस्वीर में आप कहीं से भी शुरुआत कर सकते हैं और कहीं से भी निकल सकते हैं, एक तस्वीर में आप उसमें गिरते हैं, जैसे एलिस वंडरलैंड में गिरी थीं।
जब फोटोग्राफी पहली बार उन्नीसवीं सदी के सौंदर्यशास्त्र के संदर्भ में उभरी, तो इसे पहले सत्य का स्वच्छंद रिकॉर्ड समझा गया और इसने पत्रकारिता और फोटोजर्नलिज्म के जेनर को जन्म दिया, जिसने फोटोग्राफी को मीडिया में वस्तुत: सत्य दस्तावेज़ करने का माध्यम बना दिया। तब से दुनिया बदल गई है और इसी तरह फोटोग्राफी की समाज में भूमिका भी। पहले यह वास्तविकता को दर्ज करने का एक तरीका था, लेकिन अब यह वास्तविकता को प्रेरित करने का एक तरीका बन चुका है।
हमारे चारों तरफ, हम वह देखते हैं जो इन तस्वीरों ने हमें देखना सिखाया है। अगर हम छुट्टियों पर जाते हैं, हम उन तस्वीरों को खोजते हैं जो कि हमें हमारे यात्रा एजेंट ने दिखाया है। हम अपनी यात्रा का अनुभव उन तस्वीरों में ढूंढते हैं और फिर हम उनी तस्वीरों से प्रेरित होकर उनसे मिलती-जुलती नई तस्वीरें बनाते हैं और फिर हम उनही तस्वीरों को अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स पर पोस्ट करते हैं जो कि बाकी लोगों को उनही तरह की तस्वीरें बनाने में प्रेरित करती हैं, यह एक चक्र है, जिसे तस्वीरें नियंत्रित कर रही हैं।
फ्लूसर के अनुसार, फोटोग्राफ़ केवल प्रतिरूप नहीं हैं, बल्कि कंप्यूटर प्रोग्राम्स की तरह एक प्रकार के प्रोग्राम्स हैं जो वास्तविकता को उनकी छवियों की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। इसका उदाहरण प्लास्टिक सर्जरी या किसी सैलून में देखा जा सकता है जहां लोग उस रूप को या उस छवि को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं जो उन्होंने किसी तस्वीर में पहले से देखा है। वह समाज जो प्रतिदिन लाखों तस्वीरों से भरा हुआ है इंटरनेट के माध्यम से अपनी वास्तविकता को इन तस्वीरों के माध्यम से देखता है और उसे आकार देता है।